Friday, March 6, 2015

बाट निहारे राधा

  

गोधूलि की वेला में,धूमिल मलिन सिकुड़ती परछाइयाँ।
विचलित व्याकुल, अतुलित अपरिमित आस लिएँ,

बाट रही निहार राधा, मनभावन  की,
 बाट रही निहार राधा  की,

 कब शाम ढले, कब श्याम मिले
 कब शाम ढले, कब श्याम मिले।

#कविता     #हिंदी  ,   #हिंदीकविता    

Wednesday, June 11, 2014

चौं रे चम्पू सफलता का फ़रदर फ़लसफ़ा 06-11

"चौं रे चम्पू" अमिताभ बच्चन जी को भी भाई आई  
उन्होंने इसे शेयर कर , अपनी पसंद लोगों को जताई 

चौं रे चम्पू

सफलता का फ़रदर फ़लसफ़ा
—अशोक चक्रधर
—चौं रे चम्पू! बड़ौ अनुभबी बनै अपने आपकूं, जे बता कै सफलता कौ रहस्य का ऐ?
—चचा, सफलता कोई रहस्य नहीं है! उसके बारे में सबकी अपनी सोच है, अपने-अपने दर्शन हैं, अपने-अपने फलसफ़े हैं। वैसे सफलता का ये है सबसे बड़ा फलसफ़ा, कि आप सफल, बाकी सब सफ़ा। बाकी सबको साफ़ करने के चक्कर में कभी-कभी खरपतवार के साथ नन्हे पौधे भी कुचल जाते हैं। बड़े दुर्दांत जीवट के होते हैं वे लोग, जो सबको साफ़ करके सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हैं। मैं नहीं समझता कि सबको साफ़ करके कोई स्थाई रूप से सफल हो सकता है। सफलता में फसलता को भी देखना चाहिए कि कोई फसल नष्ट न हो जाए। ज़रा सी नज़र फिसली नहीं कि सफलता भी फिसलने लगती है। सफलता की उल्टी होती है असफलता। अगर अपनी असफलताओं के कारणों को जानकर उन पर विजय पाई जा सके तो व्यक्ति जल्दी ही पुन: सफल हो सकता है।
—बात तौ तू कायदे की सी करि रह्यौ ऐ, आगै बता!
—सफलता का पहला अंधा टीला है, इच्छापूर्ति। अगर इच्छापूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति अपने आपको असफल समझने लगता है। यदि वह व्यक्ति चीज़ों को सर्वांगीण रूप में समझने में अक्षम है, यानी यही नहीं जान पाता कि इच्छापूर्ति अगर नहीं हुई तो क्यों नहीं हुई, तो उसका अहंकार आहत होता है और असफलता अंधे गड्ढे में गिरने जैसा कष्ट देती है। सहज भाव से इच्छाएं पूरी होती रहें तो मन-मिजाज़ मंगलमय रहता है।
—गल्त इच्छा रखिबे वारौ सई ऐ का?
—सही ग़लत की बात नहीं कर रहा चचा! यह तय करना अब कठिन होता जा रहा है कि सही-ग़लत के मानक क्या हैं। वे लोग भी असफल होते हैं जो इच्छाहीन होते हैं। इच्छापूर्ति एक अलग मसला है, इच्छाहीनता अलग। कोई कामना, कोई अभिलाषा ही न होगी, वांछित कार्य करने के लिए सक्रियता ही नहीं होगी, निरंतर कर्म-निरपेक्षता रहेगी, तो यह उसकी अकर्मण्यता है, न कि असफलता।
—तू बातन्नै उरझावै भौत ऐ रे! इच्छाहीन तौ संत होयौ करैं।
—संतों में इच्छाहीनता नहीं होती, लोभहीनता होती है। हमारे अन्दर यदि कोई लोभ-लालच नहीं है, अपरिग्रह, असंकलन की वृत्ति है, तो हम बड़े त्यागी पुरुष हैं। संतोष में प्रसन्न रह सकते हैं और उसी से तुष्टि-तसल्ली मिलती रह सकती है। संतुष्ट रह कर धैर्य से जी सकते हैं तो सफल हैं। मतलब यह है चचा कि सफलता आपकी कामनाओं से जुड़ी है। पर मैं ये मानता हूं कि इच्छाहीन व्यक्ति या निष्कामी व्यक्ति अपने मनुष्यधर्म का निर्वाह नहीं कर रहा।
—और सफलता कौ दूसरौ इलाकौ?
—दूसरा इलाका है उत्तीर्णता! आपने कोई परीक्षा दी और आप उसमें सफल हुए तो अच्छा है। लेकिन सब के सब सर्वोच्च अंक लेकर उत्तीर्ण हों, यह तो ज़रूरी नहीं है। इन दिनों नौजवानों के लिए प्रतियोगिताओं का दौर है। प्रवेश के लिए लम्बी-लम्बी लाइनें लगी हैं। माता-पिता का दबाव भी है कि वे सर्वोच्च संस्थानों में प्रवेश पाएं। बच्चे निराश हो जाते हैं। स्वयं को असफल मानने लगते हैं। यहीं चूक हो जाती है। वे कम अंक आने पर अपनी उपलब्धि को आंशिक उत्तीर्णता या अनुत्तीर्णता मान लेते हैं। इसे हार-जीत का मसला बना लेते हैं। थोड़ी सी असफलता निराशा और अवसाद में बदल कर ख़तरनाक हो उठती है। मैंने लिखा था, 'हारो जीवन में भले, हार-जीत है खेल। चांस मिले तब जीतना, कर मेहनत से मेल। मेहनत से कर मेल, मगर हम क्या बतलाएं? डरा रही हैं बढ़ती हुई आत्महत्याएं। चम्पू तुमसे कहे, निराशा छोड़ो यारो! नहीं मिलेगा चांस, ज़िन्दगी से मत हारो।'
—बालक बिचारे अबोध ऐं। समझ ई नायं पामैं कै भौत नंबर लाइबे वारे सदा सफल हौंय जरूली नायं।
—ठीक कह रहे हो चचा। रवीन्द्र नाथ टैगौर, आइंस्टाइन, बिल गेट्स, स्टीव जॉब्स ऐसे सफल व्यक्ति हैं जो औपचारिक शिक्षा में कुछ दिखा नहीं पाए, लेकिन कल्पनाओं को साकार करना जानते थे। जानते थे कि कार्य की सिद्धि होती है उत्साह, सामर्थ्य और मन में हिम्मत बनाए रखने से। याद रखते थे कि उद्यम के बिना भी मनोरथ पूरा नहीं होता। संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है कि सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं किया करते अपने आप। वैसे सिंह अगर चाहे तो कुछ ही दिनों में जंगल के सारे मृगों का सफ़ाया कर सकता है।
—ज़रूरत भर खावै और सफल नज़र आवै।
#हिंदी_कविता , #श्याम_की_कविता , #श्यामसुन्दर_पंचवटी 

Saturday, April 26, 2014

ठंडा गन्ने का जूस 04-26


अशोक चक्रधर भैया ने क्रोध अहंकार और गन्ने के जूस को आधारित कर एक कविता लिखी हमने भी उसका जवाब अपने दिवानिया स्टाइल में दिया। जो नीचे प्रस्तुत हैं।

ठंडा गन्ने का जूस


श्याम का जवाब ,

मन्ने भी दे दो  भैया,
झटपट गन्ने का जूस।

पीलिया को भी पिलिओ भैया ,

ये ठंडा गन्ने का जूस।

उदा दे ये भैया अहंकार ,

और क्रोध का भी फ्यूज।

मन्ने भी दे दो भैया  ,

झटपट गन्ने का जूस।

अशोक चक्रधर जी की कविता
अहंकार में आकर बढ़ता है,
क्रोध सबसे जल्दी सीढ़ी चढ़ता है।
चढ़ता ही जाए
बढ़ता ही जाए
तो लाल से हो जाता है
ज़हरीला नीला,
नीचे उतरे तो लाल से पीला।
उस पीली आग को नहीं चाहिए
ज़रा सी भी फूस,
पीलिया को चाहिए
गन्ने का जूस!

     

Wednesday, April 23, 2014

मंज़िले और भी है 04-23



मंज़िले और भी है सितारों से आगे।
क्षितिज के पार , हैं तेरी मंज़िलों की राहें।

बादलों का सारथ्य ले, कूच कर अंतरिक्ष ब्रम्हांड पर।
बसेरा कर, कैलाश पर्वत की चट्टानों पर।
निशाना साध वैकुण्ठ के सिंहद्वारों पर।
श्रुष्टि की प्रति श्रुष्टि कर, अपने सदृढ़ संकल्प से।

बुलंद इरादों के बूते, एक नया ज़माना पैदा कर।
नयी सुबह शाम पैदा कर।

 इस ज़ालिम ज़माने में, अपना मक़ाम पैदा कर।
अपना मक़ाम पैदा कर।

मंज़िले और भी है सितारों से आगे।......

एक अनोखा नजरिया 04-23


एक अनोखा नजरिया......  ,

ना तख़्त रहे हैं ना रहें हैं ताज,
न रहीं  विक्टोरिया,ना ही मुमताज़।
जिस के साम्राज्य में सूरज कभी न ढलता था
प्रकाश की भीख,वे ही मांग रहे हैं, मानो चन्द्रमा से आज।




Monday, February 11, 2013

करे उजागर एक नवभारत, एक नव प्रभात 02-11


करे उजागर एक नवभारत, एक नव प्रभात

मैं शाख शाख,तू पात पात।  
मैं बहता जल, तू जल प्रपात।  
है चलना हमको साथ साथ।  
दिन हो, या  हो शीत रात।  
.
प्रक्षालन करना हैं हमको,तन से मन से, जन जीवन में, 
हर जाति धर्म का,चाहे हो नर,या हो किन्नर,हर जीव,जात।  

नस्लों का और फसलो का करना है पुनरुद्धार 
निर्मल हो आचार,स्फटिक सा हो व्यवहार        

एक नव समाज का,चलो करे हम निर्माण 
जहां उजागार हो,एक नव भारत, एक नव प्रभात.

शीला की जवानी 02-11



शीला की जवानी 

माय  नेम इस शीला ,शीला की जवानी 
इंसान नहीं तो क्या, हूँ तो कुतियों की रानी 

बैठे बिठाये प्यार हो गया।   
कल तक अजनबी था,वोह आज यार हो गया।  

एक अल्सेशियन पर, दिल वारम  वार  हो गया।  
गली नुक्कड़ में यही हॉट समाचार हो गया।  
कल तक काबू में था दिल, आज बेक़रार हो गया।  
जानवार काम का जो था,आज बेकार हो गया।

माँ ने कहा, बेटे, उखड़े उखड़े से क्यों लगते हों,
भरे सावान में सूखे खेत से नज़र आते  हो।

शायद तुम्हे कोई भा  गया,कौन हैं जो दिल पे छा गया।
बेटा खानदान की इज्ज़त को निभाना ,
किसी कम जात के चक्कर में न आना।

पिता बोले  हमें जात बिरादरी में नहीं है विश्वास,
सच्चा प्यार किसी मर्यादा का नहीं हैं मोहताज।
पर हाँ, कुंडली मंगवाएंगे, पंडित कुकर शर्मा को दिखवाएंगे 
मिल गयीं  गर कुंडली, तो अति शीघ्र शहनाईया बजवायेंगे।

श्रोतागन  इस अधूरी कविता को परीपूर्ण करे 
वर के घर का वातावरण बयाँ करे।

गद्य अथवा पद्य के रूप में अपनी प्रतिक्रिया/समालोचना  भेज सकते हैं।

आपका ,

श्याम 


kaviraj

kaviraj
Kavita ka Kachumar